नई दिल्ली। मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा वर्ष 2002 में डाक्टरों द्वारा जेनरिक दवा को लिखे जाने का नियम बनाया गया था। लगभग 21 साल हो जाने के बाद भी इसका अनुपालन नहीं हो रहा है। ब्रांडेड दवाओं के रेगूलेशन बन जाने के 21 साल बाद भी ब्रांडेड को अहमियत मिलती है। जो महंगी होती है। यह बात उल्लेखनीय है कि जेनरिक में 80 फीसदी दवाएं ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर से बाहर है। इनकी एमआरपी कई गुना अधिक रख दी जाती है। इन मुद्दों को लेकर अधिवक्ता केसी जैन द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी जनहित याचिका को विचारार्थ स्वीकार करते हुए मुख्य न्यायाधीश डीवाई चन्द्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला व न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की बेंच द्वारा नेशनल मेडीकल कमिशन व सभी स्टेट मेडीकल काउंसिल को नोटिस जारी करने के आदेश दिए हैं। इस मामले में अगली सुनवाई छह अक्तूबर को होगी।
बेहिसाब दाम रखे जा रहे दवाइयों के

याचिका में उल्लेख किया गया है कि दवाईयों की अधिक कीमत के कारण कमजोर वर्ग के लोग उन्हें नहीं खरीद पाते हैं। मेडीकल काउंसिल के द्वारा वर्ष 2002 में बनाये गये रेगूलेशन सं0 1.5 के अनुसार डाक्टरों को दवाई जेनरिक नाम से लिखनी चाहिए। जन औषधि केन्द्र पर उपलब्ध दवाईयों की कीमत 50 प्रतिशत से 90 प्रतिशत तक कम होती है लेकिन डाक्टर के पर्चे में न लिखे होने के कारण मरीज उसे नहीं खरीद पाते हैं। इसमें सुधार होना चाहिए। मेडीकल काउंसिल की तरफ से वर्ष 2012, 2013 व 2017 में डाक्टरों द्वारा जेनरिक दवाईयां लिखे जाने के लिखा गया।
याचिका में यह बात भी उठायी गयी कि ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर 2013 के पेरा 14 के अनुसार शेड्यूल्ड दवाईयों को निर्धारित एमआरपी से अधिक नहीं बेचा जा सकता है लेकिन पेरा 20 के अनुसार नॉन शेडयूल्ड दवाईयों के एमआरपी निर्धारण की कोई प्रक्रिया नहीं है। इस कारण दवा बनाने वाली कम्पनियां जेनरिक दवाईयों की एमआरपी कई गुनी निर्धारित कर देती हैं जिससे मरीजों को कहीं अधिक कीमत देनी पड़ती है। शेड्यूल्ड दवाईयों से तात्पर्य ड्रग प्राइस कण्ट्रोल ऑर्डर के शेडयूल में दी गयी दवाईयों से है। केवल 20 फीसदी दवाइयों का ही शिड़यूल में उल्लेख है। इस वजह से 80 प्रतिशत दवाईयों की एमआरपी पर कोई नियंत्रण नहीं है। याचिका में मांग की गयी कि इस व्यवस्था में सुधार होना चाहिए और सभी दवाईयों के एमआरपी निर्धारित ढंग से तय होनी चाहिए।

Author: fastblitz24



