न्यू दिल्ली : ईरान और इजरायल के बीच जारी मौजूदा तनाव के बीच, इतिहास के पन्ने पलटकर यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि कभी फारस के नाम से जाना जाने वाला यह खुशहाल देश, जहां महिलाएं आज़ादी से जीती थीं और हर आधुनिक अधिकार प्राप्त था, कैसे अचानक एक कट्टरपंथी इस्लामिक राष्ट्र में बदल गया? यह कहानी है एक ऐसी क्रांति की, जिसकी चिंगारी एक अख़बार की ख़बर से भड़की और पूरे देश की सूरत, सीरत और किस्मत हमेशा के लिए बदल गई।

बदलाव की बयार: ‘ईरान की इस्लामिक क्रांति’ का उदय


आज से क़रीब 47 साल पहले, 6 जनवरी 1978 की सुबह ईरान के लोगों के लिए एक नया सवेरा लेकर आई। उस दिन देश के सबसे बड़े अख़बारों में से एक ‘इत्तलात’ में एक ख़बर छपी, जिसने पूरे देश में आग लगा दी। ख़बर में अयातुल्लाह रुल्लाह खुमैनी को ‘ब्रिटिश एजेंट’ बताते हुए उन पर उपनिवेशवाद की सेवा करने और अनैतिक जीवन जीने का आरोप लगाया गया था। इस ख़बर के छपते ही ईरान की सड़कों पर विरोध प्रदर्शनों का सैलाब उमड़ पड़ा। लोग सड़कों पर उतर आए, कई जगह अख़बार जलाए गए और फेंके गए। पुलिस की गोलीबारी में 20 से ज़्यादा लोग मारे गए, और कई अख़बारों पर सेंसरशिप लगा दी गई। यह घटना ‘इस्लामिक क्रांति’ की शुरुआत थी, जिसने खुले विचारों वाले फारस को मुस्लिम देश ईरान में बदल दिया।
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अयातुल्लाह रुल्लाह खुमैनी, जो एक प्रभावशाली उलेमा थे और मदरसों में उनकी अच्छी पकड़ थी, इस क्रांति के नायक बनकर उभरे। उनका भारत से भी गहरा नाता था; उनके दादा सैयद अहमद मुसवी का जन्म उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के किंतूर गांव में हुआ था। खुमैनी ने शिया इस्लाम का हवाला देते हुए खुद को जनता का हितैषी बताया और उन्हें तमाम धर्मगुरुओं का साथ मिला।
पहलवी युग का पतन और खुमैनी का उदय
फारस, जो प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन का संरक्षित राज्य बनने से रेजा शाह पहलवी द्वारा बचाया गया था, 1925 में पहलवी वंश के शासन में आया। रेजा शाह ने ईरान को एक पश्चिमी, धर्मनिरपेक्ष और महिला समर्थक देश के रूप में पहचान दिलाई। उन्होंने महिलाओं को शिक्षा, राजनीति और रोजगार में अधिकार दिए, हिजाब पर पाबंदी लगाई और शादी की उम्र बढ़ाई। लेकिन उनके बेटे मोहम्मद रेजा पहलवी के शासनकाल में, 1960 में ‘श्वेत क्रांति’ के बावजूद, आर्थिक असमानता और बेरोज़गारी चरम पर पहुंच गई। जनता में असंतोष पनपा और एक नए नायक, खुमैनी का उदय हुआ।
मोहम्मद रेजा शाह के अमेरिका और इज़राइल से अच्छे संबंध थे, जिसका खुमैनी ने विरोध किया और इसे जनता को भड़काने के लिए इस्तेमाल किया। 1964 में उन्हें गिरफ्तार किया गया और जेल से छूटने के बाद उन्हें 14 साल के लिए भूमिगत होना पड़ा। इस दौरान मोहम्मद रेजा शाह ने ‘साबाक’ नामक एक खुफिया सुरक्षा बल तैयार किया, जिस पर लोगों को प्रताड़ित करने का आरोप लगा। जनता का गुस्सा बढ़ता गया और 1978 में एक भीषण आगजनी में 450 से अधिक लोगों की मौत हो गई। सितंबर 1978 में सरकार ने मार्शल लॉ लगाया, और 8 सितंबर को तेहरान में हुए प्रदर्शनों के दौरान ‘साबाक’ की गोलीबारी में 100 से अधिक लोग मारे गए, जिसे ‘ब्लैक फ्राइडे नरसंहार’ के नाम से जाना जाता है।
इस्लामिक गणराज्य की स्थापना और इसके परिणाम
दबाव में आकर मोहम्मद रेजा शाह पहलवी ने 16 जनवरी 1979 को ईरान छोड़ दिया। उनकी अनुपस्थिति में, 14 साल बाद खुमैनी ईरान लौटे और उनका लाखों लोगों ने स्वागत किया। जनता और सशस्त्र बलों के समर्थन से खुमैनी की अगुवाई में ईरान में इस्लामिक गणराज्य की स्थापना हुई। मार्च 1979 में कराए गए जनमत संग्रह में 98 प्रतिशत लोगों ने संवैधानिक राजतंत्र को इस्लामिक गणराज्य में बदलने की मंज़ूरी दी, जिसके बाद ‘इस्लामी रिपब्लिक ऑफ ईरान’ का गठन हुआ। नए संविधान में खुमैनी को सुप्रीम लीडर माना गया और सभी लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं सुप्रीम कमांडर और गार्डियन काउंसिल के अधीन आ गईं।

Author: fastblitz24



