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क्या सचमुच गब्बर सिंह उर्फ गुंडा टैक्स बनेगा सज्जन कुमार?

जौनपुरदेश में इस समय एक बड़ा सवाल खड़ा है कि क्या सरकार वाकई लोगों को टैक्स के भारी-भरकम बोझ से निजात दिलाने वाली है. क्या उन्हें दिन पर दिन गले में कसते आर्थिक फंदे से मुक्ति मिलने वाली है. आजादी के जश्न में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से जैसे ही G S T रिफॉर्म का ऐलान किया देश में यह बड़ी चर्चा शुरू हो गई. हालांकि उन्होंने इसको दीपावली का दोहरा तोहफा बताया। इशारा किया कि बहुत सी जरूरत की चीजों के टैक्स में राहत दी जायगी.

8 वर्ष पूर्व देश में जब जीएसटी कर प्रणाली लागू की गई थी तब से इसके स्वरूप, टैक्स स्लैब और संबंधित विभाग की कार्य प्रणाली इसके आलोचकों के निशाने पर रही है. लागू होने के साथ ही इस कर प्रणाली को आपत्ति , असंतोष और विरोध का सामना करना पड़ा. इसके के आलोचकों में देश के व्यापारी, उद्योगपति, उद्यमी और टैक्स विशेषज्ञ ही नहीं शामिल हैं ,आम आदमी भी हर कदम पर इसकी चपत खा-खा कर खिन्न सा हो गया है. मुखर आलोचकों में अधिकतर वह हैं जो टैक्स विसंगतियों का शिकार होकर नुकसान में रहे हैं. इसीलिए इस कर प्रणाली, जिसका नाम जीएसटी यानी गुड सर्विस टैक्स है उसे ‘गब्बर सिंह टैक्स’ या ‘गुंडा टैक्स’ का खिताब दिया जाने लगा.

 

आज हम देश में जीएसटी के स्वरूप, सरकार द्वारा पाली गई अपेक्षायें, जन आकांक्षाओं के साथ-साथ इस ‘दिवाली के तोहफे’ के सरकारी इरादों पर प्रकाश डालेंगे. हालांकि सही तस्वीर सभी प्रावधानों की पूरी घोषणा के बाद ही सामने आएगी, लेकिन हमें यह देखना है कि तथाकथित गब्बर सिंह उर्फ गुंडा टैक्स क्या सचमुच सज्जन कुमार बन जाएगा? इस पर देखिए हमारी यह खास रिपोर्ट –

वस्तु और सेवा कर यानि जीएसटी सन 2016 के 101 वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा देश में एक नई कर व्यवस्था के तौर पर लागू की गई । इस संशोधन ने भारत के संविधान में एक नया अनुच्छेद 279-A जोड़ा। इस कर के सुचारू और कुशल प्रशासन के लिए जीएसटी परिषद का गठन किया गया, जो वस्तु एवं सेवा कर से संबंधित मुद्दों पर केंद्र और राज्य सरकार को सिफारिशें करने के लिए बनाया गया एक संवैधानिक निकाय था । इसके तहत राष्ट्रपति ने 2016 में आदेश जारी कर परिषद का गठन किया था ।

देश में यह नई कर प्रणाली सन् 2017 में लागू की गई, हालांकि वैश्विक स्तर पर तो इसका प्रयोग सन् 1954 में ही किया गया था. फ्रांस को विश्व में GST का जनक कहा जाता है क्योंकि वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) लागू करने वाला वही दुनिया का पहला देश है. अगर इसकी वैश्विक स्वीकार्यता की बात करें तो आज दुनिया भर के 140 से अधिक देशों ने जीएसटी लागू किया है.

वैसे देखा जाए तो इसे लागू किए जाने के लगभग पौने दो दशक पहले सन 1999 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी आर्थिक सलाहकार समिति के बीच हुई बैठक में एक समान ” वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) ” का प्रस्ताव रखा गया और उसे मंज़ूरी दी गई थी. जीएसटी का एक मॉडल तैयार करने के लिए पश्चिम बंगाल के तत्कालीन वित्त मंत्री असीम दासगुप्ता की अध्यक्षता में एक समिति भी गठित की गई थी. उनके बाद देश में आने वाली दूसरी सरकारों ने भी इस मॉडल पर काम जारी रखा और लंबे मंथन के बाद अंततः एक जुलाई 2017 को इसे एक व्यापक, गंतव्य-आधारित अप्रत्यक्ष कर के रूप में लागू किया गया, जिसने राज्यों और केंद्र द्वारा लागू किए जाने वाले विभिन्न अप्रत्यक्ष करों, जैसे वैट, उत्पाद शुल्क आदि का स्थान ले लिया। भारत सरकार ने इसके नियमों को संचालित करने के लिए एक जीएसटी परिषद का भी गठन किया. जिसकी संरचना और स्वरूप की
अगर बात की जाए तो इसके कुल 33 सदस्य हैं. परिषद का अध्यक्ष केंद्रीय वित्त मंत्री होता है. केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व राजस्व के प्रभारी वित्त राज्य मंत्री करते हैं, जबकि राज्य सरकारों का प्रतिनिधित्व प्रत्येक राज्य का वित्त या कराधान मंत्री, या राज्य सरकार द्वारा नामित कोई अन्य मंत्री द्वारा होता है.
परिषद विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं के लिए उपयुक्त कर दरों की सिफारिश करती है और किन व्यवसायों को जीएसटी पंजीकरण कराना अनिवार्य है उसको चिन्हित करती है. इसके साथ-साथ परिषद जीएसटी प्रक्रिया को आसान बनाने और करदाताओं के लिए अनुपालन को सरल बनाने की सिफारिशें भी करती है.परिषद अंतरराज्यीय आपूर्ति पर कर लगाने की प्रणाली को भी नियंत्रित करती है. इसके साथ ही यह उन विवादों के समाधान के लिए एक तंत्र स्थापित करती है जो जीएसटी के संबंध में संघ और राज्यों के बीच या राज्यों के बीच उत्पन्न हो सकते हैं.
इन 8 वर्षों के दौरान जीएसटी परिषद ने कुल 55 बैठकें की. जिसमें बड़ी संख्या में जीएसटी के मूल स्वरूप पर बदलाव के लिए सिफारिश की गई. लेकिन बार-बार किए गए यह बदलाव भी न तो उपभोक्ताओं को संतुष्ट कर सके और न ही इनसे व्यापारियों और उद्यमियों का असंतोष थमा.
जिस जीएसटी को सुशासन व्यवस्था और पारदर्शिता से लागू करने का दावा था, करापवंचन रोक कर छापे और सर्वे से मुक्ति दिलाने एवं इंस्पेक्टर राज और अफसरशाही खत्म करने का वादा किया गया था वह वास्तविकता के धरातल पर नहीं उतर सका. दूसरी तरफ उपभोक्ताओं को दिया गया भरोसा कि अप्रत्यक्ष कर लगने से वस्तुओं की कीमत में कमी आएगी और महंगाई कम होगी भी, फीका लालीपॉप साबित हुआ.
उलटे जहां टैक्स स्लैब की ऊंची दरों और उसके अप्रासंगिक स्लैब निर्धारण ने उपभोक्ताओं पर भारी बोझ डाला तो उद्यमी और व्यापारी इसकी जटिलता में फंस कर रह गए. जिसके लिए उन्हें खर्चीले एकाउंटेंट, चार्टर्ड एकाउंटेंट और वकीलों से मदद लेनी पड़ी. जिसका बोझ भी उपभोक्ता की जेब पर ही जाने लगा. साथ ही साथ इस जटिल प्रणाली को समझने में असफल होने अथवा गलतियां होने पर विभाग को भारी जुर्माना भी देने पड़े. इतने सब कुछ के बाद भी उन्हें सर्वे नोटिस और विभागीय धमकियों के मकड़जाल जाल में फंसा कर सुविधा शुल्क वसूलने की परंपरा खत्म नहीं हुई. उसकी सबसे बड़ी वजह 8 साल बाद भी विभाग – व्यापारी विवाद के हल के लिए ट्रिब्यूनल न बनना समझा जा रहा है.

आज हालात यह है कि हाईकोर्ट के बार-बार आदेश के बावजूद कि “बिना ट्रिब्यूनल बने, विभाग व्यापारियों और उद्यमियों पर किसी प्रकार का एकतरफा फैसला करके जुर्माना न लगाए” विभाग द्वारा लगातार उद्यमियों एवं व्यापारियों के बैंक खातों को फ्रीज करने से लेकर सर्वे और तरह-तरह की पेनाल्टियां लगा कर प्रताड़ित किया जा रहा है.

प्रधानमंत्री का कहना है कि नया सुधार होगा सबके लिए फायदेमंद. इससे ज़रूरी सामान सस्ते होंगे, प्रक्रिया आसान होगी और टैक्स इंस्पेक्टर राज खत्म होगा. अगर ये वादे पूरे होते हैं तो शायद ‘गब्बर सिंह टैक्स’ की छवि मिटकर जीएसटी सचमुच ‘सज्जन कर’ बन जाए. फैसला आने वाले समय में होगा कि यह सुधार सच में जनता की मदद करेगा या फिर राजनीतिक पैंतरेबाज़ी साबित होगा?

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Author: fastblitz24

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