मणिपुर में आदिवासी-मूलवासी समुदायों पर दो साल की हिंसा के बाद भी स्थिति सामान्य नहीं हुई है. माओवाद खात्मे के नाम पर बस्तर में आदिवासियों का पुलिसिया दमन, हुआ है. झारखंड समेत अन्य राज्यों के आदिवासियों के स्वतंत्र धार्मिक कोड की मांग पर है.

आदिवासियों का जीवन, आजीविका व पहचान उनकी सामूहिकता, संस्कृति एवं जल, जंगल, ज़मीन से सघन रूप से जुड़ा हुआ है. इन सबके बिना आदिवासी श्रम बाज़ार में एक महज़ शोषित मज़दूर बन कर रह जाते हैं. देश में आदिवासियों के संसाधनों के दोहन और उनके सामाजिक-आर्थिक शोषण का लंबा इतिहास है. इस शोषण के विरुद्ध आदिवासियों के संघर्ष का इतिहास भी लंबा है. इस संघर्ष ने अंग्रेज़ शासकों को कई आदिवासी-पक्षीय कानून बनाने के लिए मज़बूर किया, जैसे झारखंड में छोटानागपुर व संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी व एसपीटी कानून). ऐसे अनेक कानूनों को आज़ाद हिंदुस्तान में भी सुचारू रखा गया. साथ ही, आज़ादी के बाद समय-समय पर जल, जंगल, ज़मीन पर आदिवासियों के अधिकार व उनके स्वायत्ता के संरक्षण के लिए कई संवैधानिक प्रावधान व कानून बनाए गए, जैसे पांचवी व छठी अनुसूची, पंचायत उपबंधों का विस्तार (अनुसूचित क्षेत्र में) कानून (पेसा), वन अधिकार कानून आदि.


इन सबका मूल यही है कि आदिवासी अपने जीवन, संस्कृति व संसाधनों का प्रबंधन अपने पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था अनुरूप कर सकते हैं, गैर-आदिवासी समूह व व्यवस्था उन पर हावी न हो पाएं, एवं सरकार उनकी सामूहिक अनुमति के बगैर उनके जल, जंगल, जमीन से संबंधित निर्णय नहीं ले सकती है.
Author: fastblitz24



